Thursday, July 8, 2010

ghazal

१.

निराली रुत में ढलना चाहता है
नगर पहलू, बदलना चाहता है


ये सपने हैं, तुझे कुछ भी न देंगे
कहाँ तक खुद को छलना चाहता है


छिपा रक्खा है, कब से बादलों ने
मगर चंदा निकलना चाहता है


ये संभव ही नही है, हठ है तेरी
हवा का रुख बदलना चाहता है?


सफीना दूर है साहिल से तेरा
अभी से क्यों उछलना चाहता है


सम्हलने की है ’आज़र’उम्र तेरी
बता तू क्यूँ फिसलना चाहता है

२.
बनी तस्वीर या बिगडी, जहाँ में रंग भर आए
हमें जो काम करने थे, सभी वो काम कर आए


तरसता हूँ मैं मुद्दत से, तेरे दीदार को जालिम
तलब है किस कदर तेरी, कि तेरी कब खबर आए


मुकद्दर इससे बढ कर तू, हमें क्या दे भी सकता है
खुदा का जिक्र आते ही, तेरा चेहरा नजर आए


मैं सोते-जागते हरदम खुदा से यह दुआ माँगू
किसी पत्थर की हद में, अब न शीशे का नगर आए


बसा है ख्वाब में मेरे, अजब अरमान का मंजर
अभी कुछ आस है‘’आज़र’न जाने कब डगर आए

३.
धूप में अब छाँव मुमकिन, जेठ में बरसात मुमकिन
रात है गर दिन में शामिल, दिन में होगी रात मुमकिन


सावधानी का कवच पहनो, अगर घर से चलो तुम
प्यार मुमकिन हो न हो पर, दोस्तों से घात मुमकिन


माँए हैं ममता से गाफिल, बाप अपनी चाहतों से
कल जो मुमकिन ही नही थी, आज है वो बात मुमकिन


सोच में रह जाए केवल, याद घर का साजो-सामाँ
भूल जाएँ खुद को हम-तुम, ऐसे भी हालात मुमकिन


वक्त का पहिया चला जाता है,’आज़र’रौंदकर सब
जीतते जो आ रहे हैं, कल उन्हे भी मात मुमकिन

४.
न किसी का घर उजडता, न कहीं गुबार होता
सभी हमदमों को ऐ दिल, जो सभी से प्यार होता


ये वचन ये वायदे सब, कभी तुम न भूल पाते
जो यकीन मुझपे होता, मेरा एतबार होता


मैं मिलन की आरजू को, लहू दे के सींच लेता
ये गुलाब जंदगी का, जो सदा बहार होता


कोई डर के झूठ कहता, न ही सत्य को छिपाता
जो स्वार्थ जंदगी का, न गले का हार होता


मैं खुद अपनी सादगी में, कभी हारता न बाजी
तेरी बात मान लेता, जो मैं होशियार होता

५.
मुझको न देख दूर से, नजदीक आ के देख
पत्थर हूँ, हल्का फूल से, मुझको उठा के देख


चेहरे के दाग, ऐसे तो, आते नही नजर
दरपन के रू-ब-रू, जरा नजरें मिला के देख


शब्दों की आत्मा में, उतरता नही कोई
विपदा तू अपनी, अपने ही, घर में सुना के देख


खशबू को कैसे ले उडा, झोंका हवा का दोस्त
तू भी तो, अपने प्यार की खुशबू लुटा के देख


ये क्या कि बुत बना लिए, पत्थर तराश के
तू आदमी को आदमी,’आज़र’बना के देख

gazal

गल्लां विच्चों गल्ल निकलदी, गल्ल पहुंचदी दूर
मैं हां रांझे वरगा गबरु , तू हैं मेरी हूर

आजा मिल के फ़ेर छेडीये ,उह भुल्ली गल्ल
हथों छुट गया हथ ना औंदा, वक्त नहीं मजबूर

रातां वी मैं जाग के कट्टां ,सुफ़ने घट ही औण
नींद कदे जद आ जांदी तां, औंदी है भरपूर

कौण किसे दा रुत दा साथी, कौण किसे दा मीत
सारे इक्को वरगे मौसम, पर रहंदे ने दूर

है किस्मत दा लेखा-जोखा ,जां कर्मां दा फल
"आज़र" किस नूं कैद ’च रहणा, हुदां है मंजूर

Wednesday, June 9, 2010

ghazal

किसको फुर्सत है दुनिया में, कौन बुलाने आएगा
बात-बात पर रुठोगे तो , कौन मनाने आएगा

जब भी मैं आवाज हूं देता, आनाकानी करते हो
मेरे बाद बता दो तुमको , कौन बुलाने आएगा

गंगा जी को मां कहते सब, जल भी गंदा करते है
पाप धुलेंगे कैसे यारो , कौन नहाने आएगा

इस बस्ती को छोड चला मैं, तू जाने और तेरा काम
सांकल तेरे दरवाजे की, कौन बजाने आएगा

इन अंध्यारी गलियों को, इक मैं ही रौशन करता था
दिन ढलते ही दीपक "आज़र" , कौन जलाने आएगा